अपने दिल का हाल न कहना कैसा लगता है
तुम को अपना चुप चुप रहना कैसा लगता है
दुख की बूँदें क्या तुम को भी खाती रहती हैं
आहिस्ता आहिस्ता ढहना कैसा लगता है
दर्द भरी रातें जिस दम हलकोरे देती हैं
दरियाओं के रुख़ पर बहना कैसा लगता है
मैं तो अपनी धुन में चकराया सा फिरता हूँ
तुम को अपनी मौज में रहना कैसा लगता है
क्या तुम भी साहिल की सूरत कटते रहते हो
पल पल ग़म की लहरें सहना कैसा लगता है
क्या शामें तुम को भी शब भर बे-कल रखती हैं
तुम सूरज हो तुम को लहना कैसा लगता है
क्या तुम भी गलियों में घर की वुसअत पाते हो
तुम को घर से बाहर रहना कैसा लगता है
कम-आहंग सुरों में तुम क्या गाते रहते हो
कुछ भी न सुनना कुछ भी न कहना कैसा लगता है
दर्द तो साँसों में बस्ते हैं कौन दिखाए तुम्हें
फूलों पर ख़ुशबू का गहना कैसा लगता है
ग़ज़ल
अपने दिल का हाल न कहना कैसा लगता है
ख़ालिद अहमद