अपने बेगानों में मैं ने फ़र्क़ कुछ पाया नहीं
इस लिए लब पर कोई शिकवा कभी लाया नहीं
आसमान-ए-दिल पे बादल ग़म का यूँ छाया रहा
हाँ मगर आँखों से मैं ने उस को बरसाया नहीं
ख़ुश-गवारी का तअस्सुर आ गया चेहरे पे यूँ
ज़ख़्म जो दिल पर लगा था वो तो भर पाया नहीं
तुम ने ग़ैरों के लिए मुझ से किया जंग-ओ-जदल
मेरे इख़लास-ओ-वफ़ा ने तुम को तड़पाया नहीं
अपनी महरूमी का मैं क्यूँ कर करूँ शिकवा बता
जानता हूँ रात का होता कोई साया नहीं
सैर-तन की वादियों की तो किया वो बार बार
रूह की गहराइयों में पर उतर पाया नहीं
कैसी क़ुर्बत वस्ल क्या और क्या क़रार-ए-जान-ओ-दिल
वक़्त ने सब कुछ दिया मैं ने मगर पाया नहीं
कैसी उल्फ़त प्यार कैसा और क्या मेहर-ओ-वफ़ा
शहर में मेरे तो ऐसी शय कोई लाया नहीं

ग़ज़ल
अपने बेगानों में मैं ने फ़र्क़ कुछ पाया नहीं
मोहम्मद हाज़िम हस्सान