अपने अपने लहू की उदासी लिए सारी गलियों से बच्चे पलट आएँगे
धूप की गर्म चादर सिमटते ही फिर ये सुनहरी परिंदे पलट आएँगे
शाम आई है और साअतों के क़दम पानियों की रवानी में रुकने लगे
कौन कहता है इन बादलों से परे आसमाँ पर सितारे पलट आएँगे
ये दरीचे इसी तरह रौशन रहें और गुलाबों की ख़ुश्बू सलामत रहे
फिर इसी छाँव में साँस लेने को हम अपने अपने घरों से पलट आएँगे
हम मुसाफ़िर हैं गर्द-ए-सफ़र हैं मगर ऐ शब-ए-हिज्र हम कोई बच्चे नहीं
जो अभी आँसुओं में नहा कर गए और अभी मुस्कुराते पलट आएँगे
फिर उन्ही ज़र्द पेड़ों के नंगे बदन शोला-ए-नख़्ल से राख होने लगे
मैं तो समझा था मौसम बदलते ही फिर डालियों पर वो पत्ते पलट आएँगे
ये सफ़ीने जो इक लहर के वास्ते अपने अपने बहाव में बहने लगे
इक अधूरी मसाफ़त की तस्वीर में फिर कोई रंग भरने पलट आएँगे
एक दिन याद आऊँगा 'साजिद' उसे उम्र की बे-करानी में मैं भी कहीं
शाम आएगी और मेरे आँगन में भी इन दरख़्तों के साए पलट आएँगे
ग़ज़ल
अपने अपने लहू की उदासी लिए सारी गलियों से बच्चे पलट आएँगे
ग़ुलाम हुसैन साजिद