अपने अंदर भी हम-नवाई नहीं
अक़्ल की रूह तक रसाई नहीं
सौदा-बाज़ी अगर न हो इस में
नेकी करने में कुछ बुराई नहीं
हर अदा से अदा निकलती है
इतनी आसान आश्नाई नहीं
हम से क़ाएम है तेरे हुस्न की शान
ये मिरी जान! ख़ुद-सताई नहीं
कितना तन्हा हूँ दश्त-ए-ग़ुर्बत में
मेरा भाई भी मेरा भाई नहीं
किसी उनवान से कभी 'आबिद'
ज़िंदगी हम को रास आई नहीं
ग़ज़ल
अपने अंदर भी हम-नवाई नहीं
आबिद वदूद