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अपने अंदर भी हम-नवाई नहीं | शाही शायरी
apne andar bhi ham-nawai nahin

ग़ज़ल

अपने अंदर भी हम-नवाई नहीं

आबिद वदूद

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अपने अंदर भी हम-नवाई नहीं
अक़्ल की रूह तक रसाई नहीं

सौदा-बाज़ी अगर न हो इस में
नेकी करने में कुछ बुराई नहीं

हर अदा से अदा निकलती है
इतनी आसान आश्नाई नहीं

हम से क़ाएम है तेरे हुस्न की शान
ये मिरी जान! ख़ुद-सताई नहीं

कितना तन्हा हूँ दश्त-ए-ग़ुर्बत में
मेरा भाई भी मेरा भाई नहीं

किसी उनवान से कभी 'आबिद'
ज़िंदगी हम को रास आई नहीं