अपने अहबाब को अशआ'र सुनाने निकला
मैं भी किन लोगों में सर अपना खपाने निकला
बअ'द-ए-कोशिश भी न दीदार की सूरत निकली
चाँद बदली से किसी और बहाने निकला
इस को ता'लीम ओ मोहब्बत की ज़रूरत है अभी
कम-सिनी में ये जो बे-चारा कमाने निकला
चाँद को देख के तारा भी बदल कर पोशाक
बज़्म-ए-अहबाब में रंग अपना जमाने निकला
मेरी शोहरत का दिया शम्स न बन जाए कहीं
कोई इस वास्ते तौक़ीर घटाने निकला
ग़ज़ल
अपने अहबाब को अशआ'र सुनाने निकला
आरिफ़ अंसारी