अपना साया भी न हम-राह सफ़र में रखना
पुख़्ता सड़कें ही फ़क़त राहगुज़र में रखना
ग़ैर-महफ़ूज़ समझ कर न ग़नीम आ जाए
दोस्तो! मैं न सही ख़ुद को नज़र में रखना
कहीं ऐसा न हो मैं हद्द-ए-ख़बर से गुज़रूँ
कोई आलम हो मुझे अपनी ख़बर में रखना
आइना टूट के बिखरे तो कई अक्स मिले
अब हथौड़ा ही कफ़-ए-आइना-गर में रखना
मश्ग़ले किब्र-सिनी में वही बचपन वाले
कभी तस्वीरें कभी आइने घर में रखना
बहते दरियाओं को साहिल ही से तकते रहना
और जलते हुए घर दीदा-ए-तर में रखना
कोई तो ऐसा हो जो तुम को बचाए तुम से
कोई तो अपना बही-ख़्वाह सफ़र में रखना
कोई भी चीज़ न रखना कि तआ'क़ुब में हैं लोग
अपनी मिट्टी ही मगर दस्त-ए-हुनर में रखना
जंगलों में भी हवा से वही रिश्ता 'अख़्तर'
शहर में भी यही सौदा मुझे सर में रखना
ग़ज़ल
अपना साया भी न हम-राह सफ़र में रखना
अख़्तर होशियारपुरी