अपना मुहासबा कभी करने नहीं दिया
ख़ुद-बीनियों ने हम को सँवरने नहीं दिया
हालात ने अगरचे सुझाई गदागरी
मेरी अना ने मुझ को बिखरने नहीं दिया
तूफ़ाँ से खेलने का रहा शौक़ उम्र भर
साहिल पे जिस ने मुझ को उतरने नहीं दिया
अलमारियों में क़ैद रहा अपना सारा इल्म
क़ल्ब-ओ-नज़र को हम ने निखरने नहीं दिया
दुनिया से कब का उठ गया होता मैं ऐ सनम
लेकिन तिरे ख़याल ने मरने नहीं दिया
मंज़िल तो मेरे सामने आती रही 'उबैद'
जोश-ए-जुनूँ ने मुझ को ठहरने नहीं दिया
ग़ज़ल
अपना मुहासबा कभी करने नहीं दिया
ओबैदुर् रहमान