अपना जब बोझ मिरी जान उठाना पड़ जाए
दूसरों का न कुछ एहसान उठाना पड़ जाए
इस क़दर ऐश-ए-मोहब्बत पे न हो ख़ुश कि तुझे
दूसरे इश्क़ में नुक़सान उठाना पड़ जाए
इस सराए में न फैलाइए अज्ज़ा-ए-हयात
जाने किस वक़्त ये सामान उठाना पड़ जाए
यूँ न हो बोल पड़ूँ मैं तिरी ख़ामोशी पर
और तुझे बज़्म से मेहमान उठाना पड़ जाए
फिर बदल जाए न इस वादा-ए-इमरोज़ से तू
और हमें दूसरा तूफ़ान उठाना पड़ जाए
क्या तमाशा हो सर-ए-कूचा-ए-दिलदार अगर
मेरे जैसा कोई नादान उठाना पड़ जाए
मैं तो मर जाऊँ उसी वक़्त अगर मुझ को 'जमाल'
इश्क़ से हाथ किसी आन उठाना पड़ जाए
ग़ज़ल
अपना जब बोझ मिरी जान उठाना पड़ जाए
जमाल एहसानी