EN اردو
अपना गिर्या किस के कानों तक जाता है | शाही शायरी
apna girya kis ke kanon tak jata hai

ग़ज़ल

अपना गिर्या किस के कानों तक जाता है

सऊद उस्मानी

;

अपना गिर्या किस के कानों तक जाता है
गाहे गाहे अपनी जानिब शक जाता है

पक्का रस्ता कच्ची सड़क और फिर पगडंडी
जैसे कोई चलते चलते थक जाता है

यारों और प्यारों के होते हुए भी कोई
आता है और सारा शहर महक जाता है

उम्र कटी है शिरयानों के कटते कटते
मौला कितना गहरा या नावक जाता है

कोई तो है जो इस हँसते बसते मंज़र में
चुपके से आवाज़ में आँसू रख जाता है

चुप रहते हैं लोग रज़ा की चादर ओढ़े
जैसे बर्फ़ से झील का सीना ढक जाता है