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अनमोल सही नायाब सही बे-दाम-ओ-दिरम बिक जाते हैं | शाही शायरी
anmol sahi nayab sahi be-dam-o-diram bik jate hain

ग़ज़ल

अनमोल सही नायाब सही बे-दाम-ओ-दिरम बिक जाते हैं

शमीम करहानी

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अनमोल सही नायाब सही बे-दाम-ओ-दिरम बिक जाते हैं
बस प्यार हमारी क़ीमत है मिल जाए तो हम बिक जाते हैं

सिक्कों की चमक पे गिरते हुए देखा है शैख़ ओ बरहमन को
फिर मेरे खंडर की क़ीमत क्या जब दैर ओ हरम बिक जाते हैं

क्या शर्म-ए-ख़ुदी क्या पास-ए-हया ग़ुर्बत की अँधेरी रातों में
कितने ही बुतान-ए-ज़ोहरा-जबीं बा-दीदा-ए-नम बिक जाते हैं

ये हिर्स-ओ-हवा की मंज़िल है ऐ राह-रवो हुश्यार ज़रा
जब हाथ रुपहले बढ़ते हैं रहबर के क़दम बिक जाते हैं

वो साहिब-ए-इल्म-ओ-हिकमत हों या पैकर-ए-अक़्ल-ओ-दानाई
इक मेरे दिल-ए-नादाँ के सिवा सब तेरी क़सम बिक जाते हैं

ये शहर है शहर-ए-ज़रदारी क्या होगा 'शमीम' अंजाम तिरा
याँ ज़ेहन ख़रीदा जाता है याँ अहल-ए-क़लम बिक जाते हैं