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अंजुम-ओ-मेहर-ए-गुल-ओ-बर्ग-ओ-सबा कुछ भी नहीं | शाही शायरी
anjum-o-mehr-o-gul-o-barg-o-saba kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

अंजुम-ओ-मेहर-ए-गुल-ओ-बर्ग-ओ-सबा कुछ भी नहीं

दिल अय्यूबी

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अंजुम-ओ-मेहर-ए-गुल-ओ-बर्ग-ओ-सबा कुछ भी नहीं
ख़ूब देखा ब-ख़ुदा ग़ैर-ए-ख़ुदा कुछ भी नहीं

वहशत-ओ-मस्ती-ओ-हैरत के सिवा कुछ भी नहीं
है जिसे उस का पता अपना पता कुछ भी नहीं

हस्ती-ए-आलम-ए-हुशियार हो कि हो अपना वजूद
सब कुछ इक वहम-ए-मुसलसल के सिवा कुछ भी नहीं

इश्क़ तो ज़िंदा-ए-जावेद बना देता है
इश्क़ के बाब में मफ़्हूम-ए-फ़ना कुछ भी नहीं

कब से है कौन है क्यूँ है वो कहाँ है क्या है
ज़ात-ए-बे-चूँ में ये सब चून-ओ-चरा कुछ भी नहीं

और सब कुछ हो ज़माने को मुबारक ऐ 'दिल'
याँ तो दामन में मोहम्मद के सिवा कुछ भी नहीं