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अंग अंग झलक उठता है अंगों के दर्पन के बीच | शाही शायरी
ang ang jhalak uThta hai angon ke darpan ke beach

ग़ज़ल

अंग अंग झलक उठता है अंगों के दर्पन के बीच

अहसन अहमद अश्क

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अंग अंग झलक उठता है अंगों के दर्पन के बीच
मानसरोवर उमडे उमडे हैं भरपूर बदन के बीच

चाँद अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेते हैं जोबन के बीच
मद्धम मद्धम दीप जले हैं सोए सोए नयन के बीच

मुखड़े के कई रूप दूधिया चाँदनी भोर सुनहरी धूप
रात की कलियाँ चुटकी चुटकी सी बालों के बन के बीच

मथुरा के पेड़ों से कूल्हे चिकने चिकने से गोरे
रूप निर्त के जागे जागे छतियों की थिरकन के बीच

जैसे हीरों का मीनारा चमके घोर अँधेरे में
दीवाली के दीप जले हैं चोली और दामन के बीच

मन में बसा कर मूरत इक अन-देखी कामनी राधा की
'अहमद' हम तो खो गए बृन्दाबन की कुंज गलियन के बीच