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अँधेरी खाई से गोया सफ़र चटान का था | शाही शायरी
andheri khai se goya safar chaTan ka tha

ग़ज़ल

अँधेरी खाई से गोया सफ़र चटान का था

रौनक़ रज़ा

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अँधेरी खाई से गोया सफ़र चटान का था
जो फ़ासला मिरे घर से तिरे मकान का था

बिछड़ के तुझ से वो आलम मिरी उड़ान का था
कि मैं ज़मीं का रहा था न आसमान का था

तमाम उम्र मिरे दिल में जो खटकता रहा
वो तीर तेरे किसी तंज़ की कमान का था

यक़ीं के ठोस दलाएल जिसे न काट सके
तिरी वफ़ा से वो रिश्ता मिरे गुमान का था

तुम अपने अज़्म के शल बाज़ुओं को मत चूमो
मनाओ ख़ैर कि एहसान बादबान का था