EN اردو
अँधेरे लाख छा जाएँ उजाला कम नहीं होता | शाही शायरी
andhere lakh chha jaen ujala kam nahin hota

ग़ज़ल

अँधेरे लाख छा जाएँ उजाला कम नहीं होता

फ़ना बुलंदशहरी

;

अँधेरे लाख छा जाएँ उजाला कम नहीं होता
चराग़-ए-आरज़ू जल कर कभी मद्धम नहीं होता

मसीहा वो न हों तो दर्द-ए-उल्फ़त कम नहीं होता
ये ज़ख़्म-ए-इश्क़ है इस ज़ख़्म का मरहम नहीं होता

ग़म-ए-जानाँ को जान-ए-जाँ बना ले देख दीवाने
ग़म-ए-जानाँ से बढ़ कर और कोई ग़म नहीं होता

तलब बन कर मिरी हर दम वो मेरे साथ रहते हैं
कभी तन्हा मिरी तन्हाई का आलम नहीं होता

तुम्हारा आस्ताना छोड़ कर आख़िर कहाँ जाऊँ
दिया है दर्द-ए-दिल तुम ने वो दिल से कम नहीं होता

मिरा तन-मन जला कर तू ने ज़ालिम ख़ाक कर डाला
मगर ऐ सोज़-ए-उल्फ़त तेरा शो'ला कम नहीं होता

तेरे दर से मुझे इतनी मोहब्बत हो गई जानाँ
तिरे दर के अलावा सर कहीं भी ख़म नहीं होता

बदलती ही नहीं क़िस्मत मोहब्बत करने वालों की
तसव्वुर यार का जब तक 'फ़ना' पैहम नहीं होता

समझ लीजे कि जज़्ब-ए-दिल में है कोई कमी बाक़ी
अगर दीदार उन का इश्क़ में हर दम नहीं होता