अँधेरे दिन की सफ़ारत को आए हैं अब के
हैं कितनी रौशनियाँ इश्तिहार में शब के
यहाँ तो देख लिए हम ने हौसले सब के
मिले न दोस्त न दुश्मन ही अपने मंसब के
बस एक बात पे नाकामियों ने घेर लिया
ज़बाँ से आए लबों तक न हर्फ़ मतलब के
जो लब-कुशादा थे वो मुद्दई' बने लेकिन
जो दिल-कुशादा थे वो काम आ गए सब के
इक आह-ए-ख़ुश्क ही अपने नसीब में निकली
बहुत ही शोर सुने जज़्बा-ए-लबालब के
जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं लेकिन इक ग़म-ए-हिज्र
अजीब फूल से साथी बिखर गए अब के
भटक रहा है दयार-ए-ख़िरद में क्यूँ ग़म-ए-दिल
घरों को लौट चुके सारे बा-वफ़ा कब के
ज़मीन-ए-सख़्त में लफ़्ज़ों के गुल खिलाए हैं
ग़ज़ल कही तो हुए क़ाइल अपने कर्तब के
हज़ार उस ने भी चक्कर दिए मगर 'बाक़र'
रहे न हम भी कभी आसमान से दब के
ग़ज़ल
अँधेरे दिन की सफ़ारत को आए हैं अब के
सज्जाद बाक़र रिज़वी