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अँधेरे दिन की सफ़ारत को आए हैं अब के | शाही शायरी
andhere din ki safarat ko aae hain ab ke

ग़ज़ल

अँधेरे दिन की सफ़ारत को आए हैं अब के

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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अँधेरे दिन की सफ़ारत को आए हैं अब के
हैं कितनी रौशनियाँ इश्तिहार में शब के

यहाँ तो देख लिए हम ने हौसले सब के
मिले न दोस्त न दुश्मन ही अपने मंसब के

बस एक बात पे नाकामियों ने घेर लिया
ज़बाँ से आए लबों तक न हर्फ़ मतलब के

जो लब-कुशादा थे वो मुद्दई' बने लेकिन
जो दिल-कुशादा थे वो काम आ गए सब के

इक आह-ए-ख़ुश्क ही अपने नसीब में निकली
बहुत ही शोर सुने जज़्बा-ए-लबालब के

जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं लेकिन इक ग़म-ए-हिज्र
अजीब फूल से साथी बिखर गए अब के

भटक रहा है दयार-ए-ख़िरद में क्यूँ ग़म-ए-दिल
घरों को लौट चुके सारे बा-वफ़ा कब के

ज़मीन-ए-सख़्त में लफ़्ज़ों के गुल खिलाए हैं
ग़ज़ल कही तो हुए क़ाइल अपने कर्तब के

हज़ार उस ने भी चक्कर दिए मगर 'बाक़र'
रहे न हम भी कभी आसमान से दब के