EN اردو
अंधेरा सा क्या था उबलता हुआ | शाही शायरी
andhera sa kya tha ubalta hua

ग़ज़ल

अंधेरा सा क्या था उबलता हुआ

अहमद महफ़ूज़

;

अंधेरा सा क्या था उबलता हुआ
कि फिर दिन ढले ही तमाशा हुआ

यहीं गुम हुआ था कई बार मैं
ये रस्ता है सब मेरा देखा हुआ

न देखो तुम इस नाज़ से आईना
कि रह जाए वो मुँह ही तकता हुआ

न जाने पस-ए-कारवाँ कौन था
गया दूर तक मैं भी रोता हुआ

कभी और कश्ती निकालेंगे हम
अभी अपना दरिया है ठहरा हुआ

जहाँ जाओ सर पर यही आसमाँ
ये ज़ालिम कहाँ तक है फैला हुआ