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अंधे अदम वजूद के गिर्दाब से निकल | शाही शायरी
andhe adam wajud ke girdab se nikal

ग़ज़ल

अंधे अदम वजूद के गिर्दाब से निकल

आरिफ़ शफ़ीक़

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अंधे अदम वजूद के गिर्दाब से निकल
ये ज़िंदगी भी ख़्वाब है तू ख़्वाब से निकल

सूरज से अपने बिछड़ी हुई इक किरन है तू
तेरा नसीब जिस्म के बरफ़ाब से निकल

तू मिट्टी पानी आग हवा में है क़ैद क्यूँ
होने का दे जवाज़ तब-ओ-ताब से निकल

फूलों में चाँद तारों में सूरज में उस को देख
इन पत्थरों के मिम्बर ओ मेहराब से निकल

मुरझा न जाए देख कहीं रूह का गुलाब
फ़ानी जहाँ की वादी-ए-शादाब से निकल

बन के जज़ीरा उभरेगा किरदार ख़ुद तिरा
ख़ुश-रंग ख़्वाहिशों के तू सैलाब से निकल

कहती हैं मुझ से सोच समुंदर की वुसअतें
'आरिफ़' तू अपनी ज़ात के तालाब से निकल