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अंदाज़-ए-सितम उन का निहायत ही अलग है | शाही शायरी
andaz-e-sitam un ka nihayat hi alag hai

ग़ज़ल

अंदाज़-ए-सितम उन का निहायत ही अलग है

इफ़्तिख़ार राग़िब

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अंदाज़-ए-सितम उन का निहायत ही अलग है
गुज़री है जो दिल पर वो क़यामत ही अलग है

ले जाए जहाँ चाहे हवा हम को उड़ा कर
टूटे हुए पत्तों की हिकायत ही अलग है

परदेस में रह कर कोई क्या पाँव जमाए
गमले में लगे फूल की क़िस्मत ही अलग है

जितना है समर जिस पे वो उतना है ख़मीदा
फलदार दरख़्तों की तबीअत ही अलग है

बाहर से तो लगता है कि शादाब है गुलशन
अंदर से हर इक पेड़ की हालत ही अलग है

हर एक ग़ज़ल तुझ से ही मंसूब है मेरी
अंदाज़ मिरा तेरी बदौलत ही अलग है

किस किस को बताऊँ कि मैं बुज़दिल नहीं 'राग़िब'
इस दौर में मफ़्हूम-ए-शराफ़त ही अलग है