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अना रही न मिरी मुतलक़-उल-इनानी की | शाही शायरी
ana rahi na meri mutlaq-ul-inani ki

ग़ज़ल

अना रही न मिरी मुतलक़-उल-इनानी की

अब्दुल्लाह कमाल

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अना रही न मिरी मुतलक़-उल-इनानी की
मिरे वजूद पे इक दिल ने हुक्मरानी की

करम किया कि बिखरने दिया न उस ने मुझे
मिरे जुनूँ की हिफ़ाज़त की मेहरबानी की

पहाड़ काटना इक मश्ग़ला था बचपन से
कड़े दिनों में भी तेशे सी नौजवानी की

बदन कि उड़ने को पर तौलता परिंदा सा
किसी कमान सी चढ़ती नदी जवानी की

'कमाल' मैं ने तो दर से दिए उठाए नहीं
उठाई उस ने ही दीवार बद-गुमानी की