अना मुँह आँसुओं से धो रही है
ज़रूरत सर-ब-सज्दा हो रही है
मिरी दुश्मन मिरी बे-बाक-गोई
मिरी राहों में काँटे बो रही है
रिया-कारी लिए जाती है सब्क़त
हक़ीक़त सर झुकाए रो रही है
मुसलसल इक अज़िय्यत ज़िंदगानी
ग़मों के बोझ सर पर ढो रही है
ज़माना मस्लहत-परवर हुआ है
ज़रूरत आदमीय्यत खो रही है
किसी की शख़्सियत मजरूह कर दी
ज़माने भर में शोहरत हो रही है
ग़ज़ल
अना मुँह आँसुओं से धो रही है
अहमद अशफ़ाक़