अना हवस की दुकानों में आ के बैठ गई
अजीब मैना है शिकरों में आ के बैठ गई
जगा रहा है ज़माना मगर नहीं खुलतीं
कहाँ की नींद इन आँखों में आ के बैठ गई
वो फ़ाख़्ता जो मुझे देखते ही उड़ती थी
बड़े सलीक़े से बच्चों में आ के बैठ गई
तमाम तल्ख़ियाँ साग़र में रक़्स करने लगीं
तमाम गर्द किताबों में आ के बैठ गई
तमाम शहर में मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू है यही
कि शाहज़ादी ग़ुलामों में आ के बैठ गई
नहीं थी दूसरी कोई जगह भी छुपने की
हमारी उम्र खिलौनों में आ के बैठ गई
उठो कि ओस की बूँदें जगा रही हैं तुम्हें
चलो कि धूप दरीचों में आ के बैठ गई
चली थी देखने सूरज की बद-मिज़ाजी को
मगर ये ओस भी फूलों में आ के बैठ गई
तुझे मैं कैसे बताऊँ कि शाम होते ही
उदासी कमरे के ताक़ों में आ के बैठ गई
ग़ज़ल
अना हवस की दुकानों में आ के बैठ गई
मुनव्वर राना