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'अमीक़' छेड़ ग़ज़ल ग़म की इंतिहा कब है | शाही शायरी
amiq chheD ghazal gham ki intiha kab hai

ग़ज़ल

'अमीक़' छेड़ ग़ज़ल ग़म की इंतिहा कब है

अमीक़ हनफ़ी

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'अमीक़' छेड़ ग़ज़ल ग़म की इंतिहा कब है
ये मालवे की जुनूँ-ख़ेज़ चौदहवीं शब है

मुझे शिकायत-ए-तल्ख़ी-ए-ज़हर-ए-ग़म कब है
मिरे लबों पे अभी कैफ़-ए-शक्कर-ए-लब है

लकीर खिंचती चली जा रही है ता-बा-जिगर
फ़रोग़-ए-मय है कि मश्क़-ए-जराहत-ए-शब है

ये महवियत है कि रो'ब-ए-जमाल है तारी
ख़िलाफ़-ए-रस्म-ए-जुनूँ दिल बहुत मुअद्दब है

कभी हरम में है काफ़िर तो दैर में मोमिन
न जाने क्या दिल-ए-दीवाना तेरा मज़हब है

बहुत मुहाल था वर्ना कि दिल फ़रेब में आए
किसी के ग़म से ग़म-ए-काएनात की छब है

चमन में फूल खिलाती फिरे बहार तो क्या
किसी के बंद-ए-क़बा टूटने लगें तब है