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अल्ताफ़-ओ-करम ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब कुछ भी नहीं है | शाही शायरी
altaf-o-karam ghaiz-o-ghazab kuchh bhi nahin hai

ग़ज़ल

अल्ताफ़-ओ-करम ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब कुछ भी नहीं है

महबूब राही

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अल्ताफ़-ओ-करम ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब कुछ भी नहीं है
था पहले बहुत कुछ मगर अब कुछ भी नहीं है

बरसात हो सूरज से समुंदर से उगे आग
मुमकिन है हर इक बात अजब कुछ भी नहीं है

दिल है कि हवेली कोई सुनसान सी जिस में
ख़्वाहिश है न हसरत न तलब कुछ भी नहीं है

अब ज़ीस्त भी इक लम्हा-ए-साकित है कि जिस में
हंगामा-ए-दिन गर्मी-ए-शब कुछ भी नहीं है

सब क़ुव्वत-ए-बाज़ू के करिश्मात हैं 'राही'
क्या चीज़ है ये नाम-ओ-नसब कुछ भी नहीं है