अल्ताफ़ बयाँ हों कब हम से ऐ जान तुम्हारी सूरत के
हैं लाखों अपनी आँखों पर एहसान तुम्हारी सूरत के
मुँह देखे कि ये बात नहीं सच पूछो तो अब दुनिया में
बेहोश करे हैं परियों को इंसान तुम्हारी सूरत के
आईना-रुख़ों की महफ़िल में जिस वक़्त अयाँ तुम होते हो
सब आइना साँ रह जाते हैं हैरान तुम्हारी सूरत के
कुछ कहने पर मौक़ूफ़ नहीं मालूम अभी हो जावेगा
ख़ुर्शीद मुक़ाबिल हो देखे इक आन तुम्हारी सूरत के
कि अर्ज़ 'नज़ीर' इक बोसे की जब हँस कर चंचल बोला यूँ
इस मुँह से बोसा लीजिएगा क़ुर्बान तुम्हारी सूरत के
ग़ज़ल
अल्ताफ़ बयाँ हों कब हम से ऐ जान तुम्हारी सूरत के
नज़ीर अकबराबादी