अल्लाह अल्लाह वस्ल की शब इस क़दर ए'जाज़ है
एक ज़रा सी चीज़ है उस पर भी इतना नाज़ है
ख़ैर हो यारब के हुस्न-ओ-इश्क़ का आग़ाज़ है
इस तरफ़ दिल है उधर सुसरी निगाह-ए-नाज़ है
जब बहार आई मुए पिंजरे चमन को उड़ गया
इस मुसीबत पर भी इतनी क़ुव्वत-ए-पर्वाज़ है
छुट गईं नब्ज़ें हुए लब बंद पुतली फिर गईं
और वो मरदूद कहता है कि ये दम-बाज़ है
ग़ैर ने मुझ को सता कर जेल की खाई हवा
ये न समझा था कि उस का लट्ठ बे-आवाज़ है
जब कहा उस ने कि उठ बे-झट मैं ज़िंदा हो गया
बात की तो बात है ए'जाज़ का ए'जाज़ है
तोड़ कर बदनाम तुम दिल को मिरे हो जाओगे
इस में पोशीदा मोहब्बत का तुम्हारी राज़ है
ग़ैर को लाए हैं मेरे घर वो मए बिस्तरे
भेद इस में भी कोई उस में भी कोई राज़ है
इश्क़ में पैदा नहीं होता है ससुरा इंक़लाब
हुस्न दे जाता है धोका हुस्न धोका-बाज़ है
अब कोई दिन भी बुढ़ापा ठोकरें खिलवाएगा
हुस्न है चंद रोज़ा जिस पे तुम को नाज़ है
नोच कर मेरे परों को कर दिया है डंड-मंड
अब न क़व्वे है न मुझ में ताक़त-ए-परवाज़ है
वस्ल की शब चार-दम छल्ले भी उन के साथ हैं
या'नी शोख़ी है शरारत है हया है नाज़ है
ग़ैर की कुछ हैसियत भी आप को मा'लूम है
ख़ुद है चौकीदार बादा उस का बर्फ़ंदाज़ है
मेरी फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ सुन कर हरामी ने कहा
ये उसी उल्लू-के-पट्ठे 'बूम' की आवाज़ है
ग़ज़ल
अल्लाह अल्लाह वस्ल की शब इस क़दर ए'जाज़ है
बूम मेरठी