अक्सर बैठे तन्हाई की ज़ुल्फ़ें हम सुलझाते हैं
ख़ुद से एक कहानी कह कर पहरों जी बहलाते हैं
दिल में इक वीराना ले कर गुलशन गुलशन जाते हैं
आस लगा कर हम फूलों से क्या क्या ख़ाक उड़ाते हैं
मीठी मीठी एक कसक है भीनी भीनी एक महक
दिल में छाले फूट रहे हैं फूल से खिलते जाते हैं
बादल गोया दिल वाले हैं ठेस लगी और फूट बहे
तूफ़ाँ भी बन जाते हैं ये मोती भी बरसाते हैं
हम भी हैं उस देस के बासी लेकिन हम को पूछे कौन
वो भी हैं जो तेरी गली के नाम से रुत्बा पाते हैं
काँटे तो फिर काँटे ठहरे किस को होंगे उन से गले
लेकिन ये मा'सूम शगूफ़े क्या क्या गुल ये खिलाते हैं
उलझे उलझे से कुछ फ़िक़रे कुछ बे-रब्ती लफ़्ज़ों की
खुल कर बात कहाँ करते हैं 'बाक़र' बात बनाते हैं
ग़ज़ल
अक्सर बैठे तन्हाई की ज़ुल्फ़ें हम सुलझाते हैं
सज्जाद बाक़र रिज़वी