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अकेली रूह अकेला मिरा बदन भी है | शाही शायरी
akeli ruh akela mera badan bhi hai

ग़ज़ल

अकेली रूह अकेला मिरा बदन भी है

अकबर हैदरी

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अकेली रूह अकेला मिरा बदन भी है
अकेले-पन का ये सहरा मिरा चमन भी है

कुशूद-ए-ज़ात का मुंकिर था कब ख़बर थी मुझे
बरहनगी ही मिरी मेरा पैरहन भी है

ख़ुद अपने क़ुर्ब की तन्हाइयों में गुज़रा है
वो एक लम्हा कि ख़ल्वत भी अंजुमन भी है

कुछ इतना सहल नहीं मेरा फ़ाश हो जाना
मिरे बदन पे तो ख़्वाबों का पैरहन भी है

बना रहा था वो हर्फ़-ओ-सदा के गुल-बूटे
उसे ख़बर न थी इक सोचने का फ़न भी है