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अकेले हैं वो और झुँझला रहे हैं | शाही शायरी
akele hain wo aur jhunjhla rahe hain

ग़ज़ल

अकेले हैं वो और झुँझला रहे हैं

ख़ुमार बाराबंकवी

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अकेले हैं वो और झुँझला रहे हैं
मिरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं

ये कैसी हवा-ए-तरक़्क़ी चली है
दिए तो दिए दिल बुझे जा रहे हैं

इलाही मिरे दोस्त हों ख़ैरियत से
ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं

बहिश्त-ए-तसव्वुर के जल्वे हैं मैं हूँ
जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं

क़यामत के आने में रिंदों को शक था
जो देखा तो वाइ'ज़ चले आ रहे हैं

बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा
'ख़ुमार' आप काफ़िर हुए जा रहे हैं