अकेले हैं वो और झुँझला रहे हैं
मिरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं
ये कैसी हवा-ए-तरक़्क़ी चली है
दिए तो दिए दिल बुझे जा रहे हैं
इलाही मिरे दोस्त हों ख़ैरियत से
ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं
बहिश्त-ए-तसव्वुर के जल्वे हैं मैं हूँ
जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं
क़यामत के आने में रिंदों को शक था
जो देखा तो वाइ'ज़ चले आ रहे हैं
बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा
'ख़ुमार' आप काफ़िर हुए जा रहे हैं
ग़ज़ल
अकेले हैं वो और झुँझला रहे हैं
ख़ुमार बाराबंकवी