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अज्नबिय्यत का हर इक रुख़ पे निशाँ है यारो | शाही शायरी
ajnabiyyat ka har ek ruKH pe nishan hai yaro

ग़ज़ल

अज्नबिय्यत का हर इक रुख़ पे निशाँ है यारो

इक़बाल माहिर

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अज्नबिय्यत का हर इक रुख़ पे निशाँ है यारो
अपने ही शहर में ग़ुर्बत का समाँ है यारो

आसमानों में लचकती हुई ये क़ौस-ए-क़ुज़ह
भेस बदले हुए रावन की कमाँ है यारो

इक सियासत है कि है दैर-ओ-हरम की महबूब
इक मोहब्बत है कि रुस्वा-ए-जहाँ है यारो

अहल-ए-दिल रह गए आसार-ए-क़दीमा हो के
ज़िंदगी एक शिकस्ता सा मकाँ है यारो

दिल ही शाइस्ता-ए-गुल-गश्त नहीं है वर्ना
ये ज़मीं आज भी फ़िरदौस-ए-जवाँ है यारो