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अजीब शोख़ी-ए-दुनिया में जी रहा हूँ मैं | शाही शायरी
ajib shoKHi-e-duniya mein ji raha hun main

ग़ज़ल

अजीब शोख़ी-ए-दुनिया में जी रहा हूँ मैं

सय्यद तम्जीद हैदर तम्जीद

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अजीब शोख़ी-ए-दुनिया में जी रहा हूँ मैं
इसी का जाम-ए-ग़रीबाना पी रहा हूँ मैं

था जा वो बाँट दिया अपनों और ग़ैरों में
अब अपनी जेब के सूराख़ सी रहा हूँ मैं

जहाँ तसव्वुर-ए-इंसान थक के हारता है
इसी महाज़-ए-अबस में कभी रहा हूँ मैं

किसी ने पूछा किसी के किसी ख़याल में थे
कहा जवाब में मैं ने कि जी रहा हूँ मैं

किसी भी रिश्ते की कुछ इब्तिदाई मुद्दत तक
बतौर-ए-आला-ए-आराइशी रहा हूँ मैं

ब-क़ौल रावी-ए-काशाना-हा-ए-जानाँ के
किसी की आरज़ू-ए-आख़िरी रहा हूँ मैं

अब उस की तुंद-मिज़ाजी ने ये धरा इल्ज़ाम
कि उस का पैरहन-ए-आतिशी रहा हूँ मैं

ये इत्तिसाफ़ ये निस्बत बजा है इक हद तक
सरापा पैकर-ए-आज़ुर्दगी रहा हूँ मैं

कहीं कहीं मेरी आहों में अज्नबिय्यत थी
सो दूसरों के लिए अजनबी रहा हूँ मैं

ख़बर मैं लेता हूँ 'तमजीद' अपने आप की जो
ख़ुद अपने आप का अख़बारची रहा हूँ मैं