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अजीब शख़्स है पत्थर से पर बनाता है | शाही शायरी
ajib shaKHs hai patthar se par banata hai

ग़ज़ल

अजीब शख़्स है पत्थर से पर बनाता है

तनवीर अहमद अल्वी

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अजीब शख़्स है पत्थर से पर बनाता है
दयार-ए-संग में शीशा का घर बनाता है

जो ज़ख़्म फूल की पत्ती का सह सका न कभी
उस आबला को वो अपनी सिपर बनाता है

फ़ज़ा का बोझ समझता है चाँद सूरज को
वो गर्दनों पे सजाने को सर बनाता है

जहाँ से क़ाफ़िला-ए-वक़्त राह भूला था
उन्हीं सराबों में वो रह-गुज़र बनाता है

तराशता है जिगर वो भी आबगीनों से
ख़ज़फ़ को कासा-ए-अर्ज़-ए-हुनर बनाता है

दिल-ओ-नज़र के फ़ुसूँ उस को रास आ न सके
वो आइनों से गुज़रने को दर बनाता है

ये किस से कहिए कि 'तनवीर' ख़ुद सलीबों को
सुकून-ए-जाँ के लिए हम-सफ़र बनाता है