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अजीब रुत है दरख़्तों को बे-ज़बाँ देखूँ | शाही शायरी
ajib rut hai daraKHton ko be-zaban dekhun

ग़ज़ल

अजीब रुत है दरख़्तों को बे-ज़बाँ देखूँ

प्रकाश फ़िक्री

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अजीब रुत है दरख़्तों को बे-ज़बाँ देखूँ
दयार-ए-शाम में आहों का मैं धुआँ देखूँ

चहार सम्त से आई थी बर्फ़ की आँधी
कहीं न फूल न रंगों की तितलियाँ देखूँ

यक़ीन उन को दिलाऊँ चमकते सूरज का
हिसार-ए-शब में जो सहमे हुए मकाँ देखूँ

ज़मीं को तू ने डराया सदा मसाइब से
कभी तुझे भी हिरासाँ ऐ आसमाँ देखूँ

लबों पे जिस के मुसलसल पुकार पानी की
उसी की आँख से दरिया भी इक रवाँ देखूँ

लहू-लुहान तो कोई नज़र नहीं आता
लहू में डूबी मगर सब की उँगलियाँ देखूँ

हमारे अहद के लोगों को क्या हुआ 'फ़िक्री'
सभों में बुझती हुई आग का समाँ देखूँ