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अजीब रोना सिसकना नवाह-ए-जाँ में है | शाही शायरी
ajib rona sisakna nawah-e-jaan mein hai

ग़ज़ल

अजीब रोना सिसकना नवाह-ए-जाँ में है

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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अजीब रोना सिसकना नवाह-ए-जाँ में है
ये और कौन मिरे साथ इम्तिहाँ में है

ये रात गुज़रे तो देखूँ तरफ़ तरफ़ क्या है
अभी तो मेरे लिए सब कुछ आसमाँ में है

कटेगा सर भी इसी का कि ये अजब किरदार
कभी अलग भी है शामिल भी दास्ताँ में है

तमाम शहर को मिस्मार कर रही है हुआ
मैं देखता हूँ वो महफ़ूज़ किस मकाँ में है

न जाने किस से तिरी गुफ़्तुगू रही 'बानी'
ये एक ज़हर कि अब तक तिरी ज़बाँ में है