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अजीब कर्ब-ए-मुसलसल दिल-ओ-नज़र में रहा | शाही शायरी
ajib karb-e-musalsal dil-o-nazar mein raha

ग़ज़ल

अजीब कर्ब-ए-मुसलसल दिल-ओ-नज़र में रहा

इफ़्फ़त ज़र्रीं

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अजीब कर्ब-ए-मुसलसल दिल-ओ-नज़र में रहा
वो रौशनी का मुसाफ़िर अँधेरे घर में रहा

वो चाँदनी का मुरक़्क़ा' नहीं था जुगनू था
चराग़ बन के जला और शजर शजर में रहा

कहावतों की तरह वो भी शहर-ए-मा'नी था
बुझा बुझा सा दिया जो किसी खंडर में रहा

वो जिस को खोज सराबों में थी समुंदर की
वो अपने दश्त-ए-दिल-ओ-जाँ की रहगुज़र में रहा

वही तो नक़्श-ए-क़दम थे जो सारे मिटते गए
वो दाग़-ए-सज्दा था बाक़ी जो संग-ए-दर में रहा

यही तिलिस्म था 'ज़र्रीं' जिसे न तोड़ सकी
वजूद उस का तो तक़दीर के भँवर में रहा