अजीब जंग-ओ-जिदाल हर पल है मेरे अंदर
कि नूर-ओ-ज़ुल्मत का एक मक़्तल है मेरे अंदर
उगे हैं मुझ में हज़ार-हा ख़ार-ज़ार पौदे
फिर इस पे तुर्रा कि रूह मलमल है मेरे अंदर
ये कैसी बे-मअ'नी ज़िंदगी हो के रह गई है
न कुछ अधूरा न कुछ मुकम्मल है मेरे अंदर
मैं जानता हूँ कि ख़त्म होगा न ये तअफ़्फ़ुन
मगर लुटाऊँगा जितना संदल है मेरे अंदर
समुंदरों में कहाँ तमव्वुज है ऐसा मुमकिन
कि जो तलातुम है जैसी हलचल है मेरे अंदर
बड़े-बड़ों को समझ रहा है जो तिफ़्ल-ए-मकतब
'नदीम' आख़िर वो कौन पागल है मेरे अंदर
ग़ज़ल
अजीब जंग-ओ-जिदाल हर पल है मेरे अंदर
नदीम फ़ाज़ली