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अजीब दिल में मिरे आज इज़्तिराब सा है! | शाही शायरी
ajib dil mein mere aaj iztirab sa hai!

ग़ज़ल

अजीब दिल में मिरे आज इज़्तिराब सा है!

बाक़र मेहदी

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अजीब दिल में मिरे आज इज़्तिराब सा है!
खुली है आँख समुंदर भी एक ख़्वाब सा है!

ठहर ठहर के बजाता है कोई साज़ीना
मैं क्या करूँ मिरे सीने में इक रुबाब सा है!

बुझेगी प्यास मिरी ज़हर-ए-आगही से कभी
मिरे दयार में उस का मज़ा शराब सा है!

मैं क्यूँ किसी से सर-ए-राह रहबरी माँगूँ?
नई है मंज़िल-ए-ग़म इक यही जवाब सा है!

चमकती रेत से रह रह के उठ रही नवा
कोई मज़ार था पहले कि अब सराब सा है!

हदफ़ बना के न रुस्वा करो ज़माने में
ग़रीब-ए-शहर हूँ रुत्बा मिरा जनाब सा है!

मैं छोड़ आया हूँ मुद्दत हुई ग़रीबी को
ये मेरा साया बड़ा ख़ानुमाँ-ख़राब सा है!

न जाने कैसे मैं सैल-ए-रवाँ से बच निकला?
ये ज़िंदगी का तमाशा तो इक हबाब सा है!

मैं कैसे ख़ुद को समझ पाऊँ बे-कसी ये है?
कि आईना नहीं अक्सों का इक नक़ाब सा है!

नज़र मिला के मैं उस से गुज़र गया 'बाक़र'
न जाने मुझ से ख़फ़ा ये कि ला-जवाब सा है!