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अजीब दौर है अहल-ए-हुनर नहीं आते | शाही शायरी
ajib daur hai ahl-e-hunar nahin aate

ग़ज़ल

अजीब दौर है अहल-ए-हुनर नहीं आते

माहिर अब्दुल हई

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अजीब दौर है अहल-ए-हुनर नहीं आते
पिदर का इल्म लिए अब पिसर नहीं आते

हवा के झोंके भी ले कर ख़बर नहीं आते
जो घर से जाते हैं फिर लौट कर नहीं आते

हज़ार शाख़-ए-तमन्ना की देख-भाल करो
ये शाख़ वो है कि जिस पर समर नहीं आते

समझ सकेंगे न मेरी गुज़र-बसर को हुज़ूर
सुनहरे तख़्त से जब तक उतर नहीं आते

हम उन की सम्त चलें किस तरह से मीलों-मील
हमारी सम्त जो बालिश्त-भर नहीं आते

जनाब-ए-शैख़ के हुजरे से दूर ही रहिए
फ़रिश्ते आते हैं इस में बशर नहीं आते

सवाल ही न था दुश्मन की फ़त्ह-याबी का
हमारी सफ़ में मुनाफ़िक़ अगर नहीं आते

न जाने किस की नज़र लग गई ज़माने को
कि फूल चेहरे शगुफ़्ता नज़र नहीं आते

वो दिन गए कि कोई ख़्वाब हम को तड़पाए
अब ऐसे ख़्वाब हमें रात-भर नहीं आते

हम उन की राह में आँखें बिछाएँ क्यूँ 'माहिर'
जो आसमाँ से सर-ए-रह-गुज़र नहीं आते