EN اردو
अजब तरह से मैं सर्फ़-ए-मलाल होने लगा | शाही शायरी
ajab tarah se main sarf-e-malal hone laga

ग़ज़ल

अजब तरह से मैं सर्फ़-ए-मलाल होने लगा

सहर अंसारी

;

अजब तरह से मैं सर्फ़-ए-मलाल होने लगा
जो शहर का है वही दिल का हाल होने लगा

सब उस की बज़्म में थे मुजरिमों की तरह ख़मोश
हम आ गए तो हमीं से सवाल होने लगा

अब आसमाँ से मुझे शिकवा-ए-जफ़ा भी नहीं
हर इंक़लाब मिरे हस्ब-ए-हाल होने लगा

हमारे कैफ़-ओ-मसर्रत में एहतिमाम कहाँ
हवाए ताज़ा चली जी बहाल होने लगा

जो ख़ुश नहीं है 'सहर' बन के मेरा हम-साया
वो किस गुमाँ पे मिरा हम-ख़याल होने लगा