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अजब रंग की मय-परस्ती रही | शाही शायरी
ajab rang ki mai-parasti rahi

ग़ज़ल

अजब रंग की मय-परस्ती रही

मुबारक अज़ीमाबादी

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अजब रंग की मय-परस्ती रही
कि बे मय पिए मय की मस्ती रही

बिखरते रहे गेसू-ए-अम्बरीं
सबा उन से मिल मिल के बस्ती रही

रहा दौर में साग़र-ए-नर्गिसी
मिरी मय उन आँखों की मस्ती रही

वो शक्ल अपनी हर दम बदलते रहे
यहाँ मश्क़-ए-सूरत-परस्ती रही

वहीं रह पड़े राह में हुस्न-ए-दोस्त
जहाँ हुस्न वालों की बस्ती रही

मिली रोज़ हम फ़ाक़ा-मस्तों को मय
ख़ुदा जाने महँगी कि सस्ती रही

'मुबारक' परस्तार-ए-मय-ख़ाना था
ये जब तक रहा मय-परस्ती रही