अजब रंग की मय-परस्ती रही
कि बे मय पिए मय की मस्ती रही
बिखरते रहे गेसू-ए-अम्बरीं
सबा उन से मिल मिल के बस्ती रही
रहा दौर में साग़र-ए-नर्गिसी
मिरी मय उन आँखों की मस्ती रही
वो शक्ल अपनी हर दम बदलते रहे
यहाँ मश्क़-ए-सूरत-परस्ती रही
वहीं रह पड़े राह में हुस्न-ए-दोस्त
जहाँ हुस्न वालों की बस्ती रही
मिली रोज़ हम फ़ाक़ा-मस्तों को मय
ख़ुदा जाने महँगी कि सस्ती रही
'मुबारक' परस्तार-ए-मय-ख़ाना था
ये जब तक रहा मय-परस्ती रही
ग़ज़ल
अजब रंग की मय-परस्ती रही
मुबारक अज़ीमाबादी