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अजब क्या है रहे उस पार बहते जुगनुओं की रौशनी तहलील की ज़द में | शाही शायरी
ajab kya hai rahe us par bahte jugnuon ki raushni tahlil ki zad mein

ग़ज़ल

अजब क्या है रहे उस पार बहते जुगनुओं की रौशनी तहलील की ज़द में

ज़ाहिद मसूद

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अजब क्या है रहे उस पार बहते जुगनुओं की रौशनी तहलील की ज़द में
हवा-ए-बेवतन रख ले तुलू-ए-महर का इक ज़ाइचा ज़म्बील की ज़द में

ग़म-ए-बे-चेहरगी का अक्स था जिस ने वजूद-ए-संग को मबहूत कर डाला
तराशीं सिलवटें जूँही ख़द्द-ओ-ख़ाल-ए-तहय्युर आ गए तश्कील की ज़द में

शब-ए-व'अदा फ़सील-ए-हिज्र से आगे चमकता है तिरा इस्म-ए-सितारा-जू
कि जैसे कोई पैवंद-ए-रिदा-ए-सुब्ह आ जाए किसी क़िंदील की ज़द में

तमाशाई दरीचे में थिरकती सुर्ख़ आँखों के तिलिस्म-ए-ख़्वाब में गुम हैं
मगर सहमी हुई कठ-पुतलियों की ज़िंदगी है आख़िरी तमसील की ज़द में

मिरे नामे तही-मज़मूँ सही फिर भी तिरी लौह-ए-मुक़फ़्फ़ल की अमानत हैं
कभी तो आएगी शक्ल-ए-हुरूफ़-ए-ना-फ़रस्तादा ख़त-ए-तावील की ज़द में