अजब इंसान हूँ ख़ुश-फ़हमियों के घर में रहता हूँ
मैं जिस मंज़र में हूँ गुम उस के पस-ए-मंज़र में रहता हूँ
कोई मानूस चाप आए सुराग़-ए-आगही ले कर
मैं अपनी ख़्वाहिशों के ख़ाना-ए-बे-दर में रहता हूँ
जो मुझ से मेरी हस्ती ले गया था एक साअत में
बड़ी मुद्दत से मैं उस शख़्स के पैकर में रहता हूँ
जो मैं ज़ाहिर में हूँ वो तो सराब-ए-ज़ात है यारो
मैं अपने ज़ेहन के बुत-ख़ाना-ए-आज़र में रहता हूँ
अलामत फ़िक्र-ओ-दानिश की जहाँ पत्थर ही पत्थर है
मिरी हिम्मत कि इस अहद-ए-सितम-परवर में रहता हूँ
ग़ज़ल
अजब इंसान हूँ ख़ुश-फ़हमियों के घर में रहता हूँ
सुलतान रशक