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अजब ही ढंग से अब अंजुमन-आराई होती है | शाही शायरी
ajab hi Dhang se ab anjuman-arai hoti hai

ग़ज़ल

अजब ही ढंग से अब अंजुमन-आराई होती है

इस्लाम उज़्मा

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अजब ही ढंग से अब अंजुमन-आराई होती है
जहाँ पर भी रहें हम साथ में तन्हाई होती है

फ़ुतूहात-ए-दिल-ओ-जाँ पर यूँ मत इतरा मिरे लश्कर
कि इस मैदान में फ़िल-फ़ौर ही पस्पाई होती है

ये मेला वक़्त का है हाथ उस के हाथ में रखना
बिछड़ जाएँ यहाँ तो फिर कहाँ यकजाई होती है

हम ऐसे कुछ भी कर लें उन की तह को पा नहीं सकते
अमीर-ए-शहर की बातों में वो गहराई होती है

सलासत से बयाँ अहवाल-ए-दिल करना है इक ख़ूबी
बसा-औक़ात चुप रहना भी तो दानाई होती है

ज़बान-ए-ख़ल्क़ गोयाई के गौहर तो लुटाती है
लबों पर जो नहीं आती वही सच्चाई होती है