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ऐसी वहशत नहीं दिल को कि सँभल जाऊँगा | शाही शायरी
aisi wahshat nahin dil ko ki sambhal jaunga

ग़ज़ल

ऐसी वहशत नहीं दिल को कि सँभल जाऊँगा

हैदर अली आतिश

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ऐसी वहशत नहीं दिल को कि सँभल जाऊँगा
सूरत-ए-पैरहन-ए-तंग निकल जाऊँगा

वो नहीं हूँ कि रुखाई से जो टल जाऊँगा
आज जाता था तो ज़िद से तिरी कल जाऊँगा

शाम-ए-हिज्राँ किसी सूरत से नहीं होती सुब्ह
मुँह छुपा कर मैं अँधेरे में निकल जाऊँगा

खींच कर तेग़ कमर से किसे दिखलाते हो
नाफ़-ए-माशूक़ नहीं हूँ जो मैं टल जाऊँगा

शब-ए-हिज्र अपनी सियाही किसे दिखलाती है
कुछ मैं लड़का तो नहीं हूँ कि दहल जाऊँगा

कूचा-ए-यार का सौदा है मिरे सर के साथ
पाँव थक थक के हों हर-चंद कि शल जाऊँगा

ज़ब्त-ए-बेताबी-ए-दिल की नहीं ताक़त बाक़ी
कोह-ए-सब्र अब ये सदा देता है टल जाऊँगा

ताले-ए-बद के असर से ये यक़ीं है मुझ को
तेरी हसरत ही में ऐ हुस्न-ए-अमल जाऊँगा

चार दिन ज़ीस्त के गुज़़रेंगे तअस्सुफ़ में मुझे
हाल-ए-दिल पर कफ़-ए-अफ़्सोस मैं मल जाऊँगा

शो'ला-रूयों को न दिखलाओ मुझे ऐ आँखो
मोम से नर्म मिरा दिल है पिघल जाऊँगा

हाल-ए-पीरी किसे मा'लूम जवानी में था
क्या समझता था मैं दो दिन में बदल जाऊँगा

वही दीवानगी मेरी है बहार आने दो
देख कर लड़कों की सूरत को बहल जाऊँगा

शेर ढलते हैं मिरी फ़िक्र से आज ऐ 'आतिश'
मर के कल गोर के साँचे में मैं ढल जाऊँगा