ऐसी तश्बीह फ़क़त हुस्न की बदनामी है
माह आरिज़ को लिखा ख़ामे की ये ख़ामी है
रंग ये उन की सबाहत ने अजब दिखलाया
सुर्ख़ जोड़े पे गुमाँ होता है बादामी है
कहते फिरते हो बुरा मुझ को ये बात अच्छी नहीं
मेरी रुस्वाई में साहब की भी बदनामी है
आप की बातों से दिल पक गया जब कहता हूँ मैं
हँस के कहते हैं ये उल्फ़त की फ़क़त ख़ामी है
चूमता है कोई आँखों से लगाता है कोई
है लिबास आप का या जामा-ए-एहरामी है
नहीं डगने का क़दम राह-ए-वफ़ा से अपना
जो सितम चाहो करो सब्र मिरा हामी है
आप की इश्क़ की ईज़ा में है लुत्फ़ ओ राहत
आप पर ख़त्म मिरी जान दिल-आरामी है
हम अकेले नहीं रहते शब-ए-तन्हाई में
यास-ओ-अंदोह-ओ-ग़म ओ हसरत-ओ-नाकामी है
दिल को अबरू हैं पसंद आँख को चश्म-ए-मय-गूँ
कोई दुनिया में हिलाली है कोई जामी है
लौह-ए-क़ुरआँ जो कहा उन की जबीं को 'ज़ेबा'
इस में कुछ शक नहीं तश्बीह ये इल्हामी है
ग़ज़ल
ऐसी तश्बीह फ़क़त हुस्न की बदनामी है
ज़ेबा