ऐसी कोई दरपेश हवा आई हमारे 
जो साथ ही पत्ते भी उड़ा लाई हमारे 
वो अब्र कि छाया रहा आँखों के उफ़ुक़ पर 
वो बर्क़ जो अंदर कहीं लहराई हमारे 
देखा है बहुत ख़्वाब-ए-मुलाक़ात भी हर-रोज़ 
हिस्से में जो अब आई है तन्हाई हमारे 
इस बार मिली है जो नतीजे में बुराई 
काम आई है अपनी कोई अच्छाई हमारे 
थे ही नहीं मौजूद तो क्यूँ ख़ल्क़ ने उस की 
चारों तरफ़ अफ़्वाह सी फैलाई हमारे 
फिर झूट की इस में हमें करनी है मिलावट 
फिर रास नहीं आएगी सच्चाई हमारे 
डरते हुए खोला तो है ये बाब-ए-तआरुफ़ 
पड़ जाए गले ही न शनासाई हमारे 
दावा तो बहुत रम्ज़-शनासी का उसे था 
ये ख़ल्क़ इशारे न समझ पाई हमारे 
चल भी दिये दिखला के तमाशा तो 'ज़फ़र' हम 
बैठे रहे ता-देर तमाशाई हमारे
        ग़ज़ल
ऐसी कोई दरपेश हवा आई हमारे
ज़फ़र इक़बाल

