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ऐसी भी सूरत-ए-हालात न समझी जाए | शाही शायरी
aisi bhi surat-e-haalat na samjhi jae

ग़ज़ल

ऐसी भी सूरत-ए-हालात न समझी जाए

मुनीर सैफ़ी

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ऐसी भी सूरत-ए-हालात न समझी जाए
मेरी पस्पाई मिरी मात न समझी जाए

ये तो रस्ते मुझे ले आए हैं तेरी जानिब
ये मुलाक़ात मुलाक़ात न समझी जाए

बाज़ औक़ात मैं नश्शे में नहीं भी होता
मेरी हर बात मिरी बात न समझी जाए

अब तो सहरा भी मिरे साथ सफ़र करते हैं
सिर्फ़ वहशत ही मिरे साथ न समझी जाए

फ़ैसले सारे कहीं और हुआ करते हैं
मेरी रुस्वाई मिरे हाथ न समझी जाए

वक़्त आने पे गला अपना दबा सकता हूँ
इतनी कमज़ोर मिरी ज़ात न समझी जाए