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ऐश-ओ-ग़म ज़िंदगी के फेरे हैं | शाही शायरी
aish-o-gham zindagi ke phere hain

ग़ज़ल

ऐश-ओ-ग़म ज़िंदगी के फेरे हैं

कैफ़ अज़ीमाबादी

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ऐश-ओ-ग़म ज़िंदगी के फेरे हैं
शब की आग़ोश में सवेरे हैं

मय-कदे से वफ़ा की मंज़िल तक
हम फ़क़ीरों के हेरे-फेरे हैं

मुझ को मत देख यूँ हिक़ारत से
मैं ने रुख़ ज़िंदगी के फेरे हैं

उन की ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में
ज़िंदगी के हसीं सवेरे हैं

मैं हूँ मे'मार-ए-ज़िंदगी ऐ 'कैफ़'
दोनों आलम के हुस्न मेरे हैं