ऐश-ए-दुनिया का जब शुमार न था
तब हमें दिल पे इख़्तियार न था
हम भी किस क़ाफ़िले में शामिल थे
जिस के पीछे कोई ग़ुबार न था
उम्र भर इश्क़ का फ़रेब रहा
कब हमें अपना इंतिज़ार न था
रात दिन एक ही रहा आलम
कौन सा लम्हा सोगवार न था
वो भी मासूम था अगर 'शोहरत'
अपना दामन भी दाग़दार न था
ग़ज़ल
ऐश-ए-दुनिया का जब शुमार न था
शोहरत बुख़ारी