ऐसे ही दिन थे कुछ ऐसी शाम थी
वो मगर कुछ और हँसती शाम थी
बह रहा था सुर्ख़ सूरज का जहाज़
माँझियों के गीत गाती शाम थी
सुब्ह से थीं ठंडी ठंडी बारिशें
फिर भी वो कैसी सुलगती शाम थी
गर्म अलाव में सुलगती सर्दियाँ
धीमे धीमे हीर गाती शाम थी
घेर लेते थे तिलाई दाएरे
पानियों में बहती बहती शाम थी
अर्श पर हिलते हुए दो हाथ थे
साहिलों की भीगी भीगी शाम थी
कितनी रातों को हमें याद आएगी
अपनी इकलौती सुहानी शाम थी
शाख़ से हर सुर्ख़ पत्ती गिर गई
फिर वही बोझल सी पीली शाम थी
चाँदी चाँदी रात को याद आएगी
सोना सोना सी रंगीली शाम थी
सोलहवें ज़ीने पे सूरज था 'उबैद'
जनवरी की इक सलोनी शाम थी
ग़ज़ल
ऐसे ही दिन थे कुछ ऐसी शाम थी
एजाज़ उबैद