ऐसे ग़ुर्बत में बैठा हूँ जैसे बड़ा बार-ए-सर रख दिया
एक सेहन एक दर एक दीवार का नाम घर रख दिया
इस हुनर पर जो तुम इस क़दर नुक्ता-चीं हो तो मैं क्या कहूँ
मेरे मालिक ने क्यूँ मुझ में सच्चाइयों का हुनर रख दिया
मैं ने शाख़ें तराशीं बुलंदी-ए-नशव-ओ-नुमा के लिए
तुम को तेशा मिला तुम ने तो काट कर ही शजर रख दिया
तेज़-तर बाद-ए-ख़ुद-सर चली तो यहाँ कौन सी लू घटी
मैं ने और इक लहू से जला कर दिया बाम पर रख दिया
मेरा हिस्सा था क्या दुख शनासाई के ज़ख़्म रुस्वाई के
वक़्त के रू-ब-रू मैं ने सारा हिसाब-ए-सफ़र रख दिया
कितने नादार दिल तुम ने ठुकरा दिए ये न सोचा कभी
इस मोहब्बत ने तो पा-ए-अफ़्लास पर ताज-ए-ज़र रख दिया
मैं ने तो अपना ख़ुद ही लिखा फ़ैसला लोग ऐसे भी थे
मुंसिफ़ी के लिए पा-ए-ना-मुंसिफ़ी पर भी सर रख दिया
ग़ज़ल
ऐसे ग़ुर्बत में बैठा हूँ जैसे बड़ा बार-ए-सर रख दिया
महशर बदायुनी